Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--मेरी पड़ोसिन-1


पड़ोसिन रवीन्द्रनाथ ठाकुर

मेरी पड़ोसिन बाल—विधवा है। मानो वह जाड़ों की ओस—भीगी पतझड़ी हरसिंगार हो। सुहागरात की फूलों की सेज के लिए नहीं, वह केवल देवपूजा के लिए समर्पित थी।
मैं उसकी पूजा मन—ही—मन किया करता था। उसके प्रति मेरा मनोभाव कैसा था, उसे मैं पूजा के अतिरिक्त किसी अन्य सुबोध शब्दों में प्रकट नहीं करना चाहता, दूसरों के सामने कभी नहीं, अपने प्रति भी नहीं।
नवीन माधव मेरा बहुत ही घनिष्ठ एवं प्रिय मित्र है। उसे भी इस बारे में कुछ नहीं मालूम। इस प्रकार मैंने अपने अन्तरतम में जिस आवेश को छुपाकर साफ—सुथरा बना रखा था उसके लिए भीतर—ही—भीतर गर्व का अनुभव भी करता था।
परन्तु पहाड़ी नदी की तरह मन का वेग अपने जन्म—शिखर से बंधा नहीं रहना चाहता। किसी भी रास्ते को अपनाकर वह बाहर निकलने की कोशिश करता है। इसमें अगर वह सफल नहीं हो पाता, तो भीतर—ही—भीतर कसक उत्पन्न करता है। इसलिए मैं यह सोच रहा था कि कविता में मैं अपने भाव प्रकट करूंगा, लेकिन कुंथा की मारी लेखनी ने किसी तरह भी आगे बढ़ना ना चाहा।
बड़े आश्चर्य का बिषय तो यह है कि ठीक इसी समय हमारे मित्र नवीन माधव को अचानका बड़े ही प्रबल वेग से कविता लिखने का शौक बढ़ने लगा, मानो अचानक भूचाल आ गया हो।
उस बेचारे पर ऐसी दैवी विपत्ति पहले कभी न आई थी, इस कारण वह इस नई—नवेली हलचल के लिए बिल्कुल तैयार न था। उसके पास छन्द, तुक आदि की पूंजी नहीं थी, फिर भी उसका दिल छोटा न हुआ, यह देखकर मैं दंग रह गया। कविता मानो बुढ़ापे की नई दुल्हन की तरह उस पर हावी हो गई। नवीन माधव को छन्द, तुक आदि की सहायता और संशोधन के लिए मेरी शरण लेनी पड़ी।
कविता के बिषय नये नहीं थे, लेकिन पुराने भी नहीं थे। यानी उन्हें बिल्कुल नवीन भी कहा जा सकता है और काफी पुरातन भी। प्रेम की कविताएं थी, प्रियतमा के उद्देश्य में। मैंने उसे एक धक्का लगाते हुए पूछा, ''आखिर है कौन, बताओ भी।''
नवीन ने हंसकर कहा, ''अब भी उनका पता नहीं लगा पाया हूं।''
नये लेखक को सहयोग देने में मुझे बड़ा सन्तोष मिला। नवीन की काल्पनिक प्रियतमा के प्रति मैंने अपने रूके आवेग का प्रयोग किया। बिना बच्चे की मुर्गी जिस तरह बत्तख का अंडा पा जाने पर भी उसे छाती के नीचे रखकर सेने लगती है, मैं अभागा भी उसी तरह नवीन माधव के भावो को अपने ह्रदय का सारा ताप देकर सेने लगा। अनाड़ी की रचनाओ का मैं ऐसे जोश—खरोश से संशोधन करने लगा कि वे करीब—करीब पन्द्रह आने मेरी ही रचनाएं बन गईं।
नवीन आश्चर्य से कहता, ''ठीक यही बात तो मैं कहना चाहता था, पर कह नहीं पाता था, लेकिन तुममें यह सब भाव कहां से आ जाती है?''
मैं भी कवि की तरह जवाब देता,''कल्पना से। इसका कारण यह है कि सत्य नीरव होता है और कल्पना वाचाल। सत्य घटनाएं भाव स्त्रोत को पत्थर की दबाए रखती हैं, कल्पना की उसका मार्ग मुक्त करती है।''

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